Friday, January 18, 2008

वक़्त x लड़की+भाग्य-.प्यार %.दिल./दिमाग >पेपर@डाक्टरेट = भेली

विफलता मुझे उतनी ही रास आती है , जितनी भैंस को दलदल। विफल व्यक्तियों से मैं घंटो बातें कर सकता हूँ लेकिन सफल व्यक्तियों से , और खासकर उन सफल व्यक्तियों से जो मेरी सफलता के हेतु बन सकते हों , बात करना मेरे लिए गुनाह हैं एक नहीं सौ गुनाह है, बल्कि पाप है। पिटे (किसी भी तरह) हुए लोगों के लिए मेरे मन में स्नेह ही स्नेह है, पहुंचे हुए लोगों के लिए अपमान ही अपमान। एक विवशता सी है मुझमे हारने की, हारे हुओं की बिरादरी में ही रह जाने की।
खैर कहानी मेरी नही बल्कि आलोदा की है जो ना जाने मेरे क्या थे। दादा को न जानने वालों का कयास था कि दादा एक विधवा , जिसके वहाँ वे किराये पर कमरा लेके रहेते थे , से या उसकी परित्यक्ता बेटी से फँसे हुए हैं। दादाको जानने वालों का मानना था कि उनका जो भी फँसावड़ा है इस परित्यक्ता की साल भर की बेटी से है। दादा से मेरी जान पहचान एक कहानीकार के तौर पर हुयी थी। " टूसी एकटा मेयेर नाम " ( एक लड़की है टूसी ) के शीर्षक से लिखी गयी कहानी में तिल तिल कर मरी टूसी के द्वारा अपने प्रेमी से कहा गया डायलोग " तोमार संगे एकटा कथा आचे " दादा का पसंदीदा था। अब दादा को जब प्यार हुआ और परवान भी चढ गया( परवान से प्रवीण की याद आ गयी जो रात को बारह बजे भोली शब्बो (उसकी माशूका) के घर में चढ़ गया। बाकी उसके बाद शब्बो के बाप हातिमताई और गाँव गेंहुआसागर थे। ) तो दादा परेशान हो गए. दादा के सवाल, "तुम मुझे प्यार तो करती हो ना?" का, बंगाली टोला की अदिति भाभी के पास एक जवाब सवाल के रुप में हमेशा रहता , " तुम हमेशा मुझसे क्यों पूछते हो ?" दादा कभी सनक जाते तो फरमाते "क्योंकि अपने से पूछने का साहस नहीं होता।" ऐसे ही वो दादा थोड़े थे। खैर कोशिश आख़िर रंग लायी ( मुझे आज तक समझ में नहीं आया, हमेशा कोशिश ही क्यों रंग लाती है ?) और दादा के सानिध्य में मैंने अपनी पहली कहानी complete कर ही ली। कहानी का नाम था, "किछु गल्प कीने नीन (इंग्लिश टाइटल था : इटर्नल मिस्ट्री बोर्न इन बंगाल।) "। इसमे तीन पुरुष पात्र थे, एक कहानीकार, एक कवि, एक उपन्यासकार। स्त्री कुल एक ही थी, असाधारण रहस्य वाली साधारण स्त्री। कहानी का सार संछेप एइसा था: स्त्री अमीर बाप की बुढापे की संतान। पहलौठी , एकलौती का सिर चढाया जाना। हठ, हर बात के लिए हठ। देवी का अवतार समझा जाना। दसवीं वर्षगांठ। कैशोर्य से जरा पहले का दौर। पायल पहनाते हुए पिता का पावों पर सिर रखे मर जाना। देवी कॉम्प्लेक्स। इस्कोजोफ्रेनिक आघात, जिससे अहम का विस्तार हुआ। जिस पिता को उससे प्यार था , वो उसके चरणों में मरा। जम गया , सहम गया, इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स। इरोस ऎंड थैन्टोस। खिलौनों के लिए जिद और साथ ही यह इच्छा भी कि खिलौना टूट जाये। प्रेमी के रुप में पिता प्रतीक की खोज। सेक्सहीन, सेक्स। अनुस्ठानबद्ध सेक्स। पुरुष को नपुंसक बनाने की इच्छा। हर चुम्बन पिता का चुम्बन।
लगता है कि मैं अपने शुरुआती उद्देश्य से इधर उधर हो गया , बात थी मेरे विफलता प्रेम की, मुझे कबीर हॉस्टल के सुशील(प्यारे) मिश्र की थ्योरी ऑफ़ हिस्ट्री की याद आ जाती है कि चुतियापे हुए हैं , हो रहें हैं , होंगे । ग्रेट वोही कहलाये , कहलाये जा रहें हैं, कहलाये जायेंगे जो फिलवक्त तमाम चूतियों को अपने चलाये चूतिया-चक्कर की ग्रेट नेस के बारें में कन्विंस कर सकें। अपने नाकारा होने के सबूत के तौर पर मैंने एक नाकारा ब्लोग लिख दिया है ।

मानसिक शक्तियों को केन्द्रित करते हुए (क्यों?) आख़िर में ...संदेश (किसको?) : " प्रियाहीन मन डरपत मोरा ।"

2 comments:

Narcissus said...

manana parega ...lekhak ji, hum to aapki lekhni ke kayal ho gaye hai.....bas darte hai ki kahi aap ke kahani lekhan ki prkriya ke dauran...chintan me hamara vayktitwa na jhalak jaye aapko...

Apki lekhni padhkar hum ye na samajh paye ki ye saili kaun si hai lekhan ki...kyiki abhi tak to hamne ye saili kisi pustako me nhi dekhi....ek naam dena chahunga aapki saili ko...."bhulbhullaiya saili" or "saili-heen saili"...jisme lekhak likhte likhte bhul jata hai ki wo kya likhana chahta tha...

Apka..sagochar...........NS.

Gaurav said...

DHANYAWAD ...