Saturday, January 26, 2008

एक कविता --कन्हैया लाल नंदन जी की .........

जिंदगी में बिखर कर संवर जाओगे।
आँख से जो गिरे तो किधर जाओगे।
पानियों की कोई शक्ल होती नहीं।
जिस भी बरतन में ढालेगा ढल जाओगे।
तुम तो सिक्के हो बस उसकी टकसाल के,वो उछालेगा और तुम उछल जाओगे।
लाख बादल सही आसमानों के तुम,जिंदगी की जमीं पे बिखर जाओगे।
मैं तो गम में भी हंसकर निकल जाऊँगा।
तुम तो हंसने की कोशिश में मर जाओगे।
मशवरा है कि डर छोड़ करके जियो।
हर कदम मौत है तुम तो डर जाओगे।
एक कोशिश करो उसके होकर जियो , उसके होकर जियोगे संवर जाओगे।

स्त्रियाँ

खुद शराब हैं।
मगर पीने से डरती हैं।
मोह्हबत में मर जाएँ सौ -सौ बार ।
मगर बुढ्ढ़ी होकर जीने से डरती हैं।

Friday, January 18, 2008

वक़्त x लड़की+भाग्य-.प्यार %.दिल./दिमाग >पेपर@डाक्टरेट = भेली

विफलता मुझे उतनी ही रास आती है , जितनी भैंस को दलदल। विफल व्यक्तियों से मैं घंटो बातें कर सकता हूँ लेकिन सफल व्यक्तियों से , और खासकर उन सफल व्यक्तियों से जो मेरी सफलता के हेतु बन सकते हों , बात करना मेरे लिए गुनाह हैं एक नहीं सौ गुनाह है, बल्कि पाप है। पिटे (किसी भी तरह) हुए लोगों के लिए मेरे मन में स्नेह ही स्नेह है, पहुंचे हुए लोगों के लिए अपमान ही अपमान। एक विवशता सी है मुझमे हारने की, हारे हुओं की बिरादरी में ही रह जाने की।
खैर कहानी मेरी नही बल्कि आलोदा की है जो ना जाने मेरे क्या थे। दादा को न जानने वालों का कयास था कि दादा एक विधवा , जिसके वहाँ वे किराये पर कमरा लेके रहेते थे , से या उसकी परित्यक्ता बेटी से फँसे हुए हैं। दादाको जानने वालों का मानना था कि उनका जो भी फँसावड़ा है इस परित्यक्ता की साल भर की बेटी से है। दादा से मेरी जान पहचान एक कहानीकार के तौर पर हुयी थी। " टूसी एकटा मेयेर नाम " ( एक लड़की है टूसी ) के शीर्षक से लिखी गयी कहानी में तिल तिल कर मरी टूसी के द्वारा अपने प्रेमी से कहा गया डायलोग " तोमार संगे एकटा कथा आचे " दादा का पसंदीदा था। अब दादा को जब प्यार हुआ और परवान भी चढ गया( परवान से प्रवीण की याद आ गयी जो रात को बारह बजे भोली शब्बो (उसकी माशूका) के घर में चढ़ गया। बाकी उसके बाद शब्बो के बाप हातिमताई और गाँव गेंहुआसागर थे। ) तो दादा परेशान हो गए. दादा के सवाल, "तुम मुझे प्यार तो करती हो ना?" का, बंगाली टोला की अदिति भाभी के पास एक जवाब सवाल के रुप में हमेशा रहता , " तुम हमेशा मुझसे क्यों पूछते हो ?" दादा कभी सनक जाते तो फरमाते "क्योंकि अपने से पूछने का साहस नहीं होता।" ऐसे ही वो दादा थोड़े थे। खैर कोशिश आख़िर रंग लायी ( मुझे आज तक समझ में नहीं आया, हमेशा कोशिश ही क्यों रंग लाती है ?) और दादा के सानिध्य में मैंने अपनी पहली कहानी complete कर ही ली। कहानी का नाम था, "किछु गल्प कीने नीन (इंग्लिश टाइटल था : इटर्नल मिस्ट्री बोर्न इन बंगाल।) "। इसमे तीन पुरुष पात्र थे, एक कहानीकार, एक कवि, एक उपन्यासकार। स्त्री कुल एक ही थी, असाधारण रहस्य वाली साधारण स्त्री। कहानी का सार संछेप एइसा था: स्त्री अमीर बाप की बुढापे की संतान। पहलौठी , एकलौती का सिर चढाया जाना। हठ, हर बात के लिए हठ। देवी का अवतार समझा जाना। दसवीं वर्षगांठ। कैशोर्य से जरा पहले का दौर। पायल पहनाते हुए पिता का पावों पर सिर रखे मर जाना। देवी कॉम्प्लेक्स। इस्कोजोफ्रेनिक आघात, जिससे अहम का विस्तार हुआ। जिस पिता को उससे प्यार था , वो उसके चरणों में मरा। जम गया , सहम गया, इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स। इरोस ऎंड थैन्टोस। खिलौनों के लिए जिद और साथ ही यह इच्छा भी कि खिलौना टूट जाये। प्रेमी के रुप में पिता प्रतीक की खोज। सेक्सहीन, सेक्स। अनुस्ठानबद्ध सेक्स। पुरुष को नपुंसक बनाने की इच्छा। हर चुम्बन पिता का चुम्बन।
लगता है कि मैं अपने शुरुआती उद्देश्य से इधर उधर हो गया , बात थी मेरे विफलता प्रेम की, मुझे कबीर हॉस्टल के सुशील(प्यारे) मिश्र की थ्योरी ऑफ़ हिस्ट्री की याद आ जाती है कि चुतियापे हुए हैं , हो रहें हैं , होंगे । ग्रेट वोही कहलाये , कहलाये जा रहें हैं, कहलाये जायेंगे जो फिलवक्त तमाम चूतियों को अपने चलाये चूतिया-चक्कर की ग्रेट नेस के बारें में कन्विंस कर सकें। अपने नाकारा होने के सबूत के तौर पर मैंने एक नाकारा ब्लोग लिख दिया है ।

मानसिक शक्तियों को केन्द्रित करते हुए (क्यों?) आख़िर में ...संदेश (किसको?) : " प्रियाहीन मन डरपत मोरा ।"

Monday, January 14, 2008

शायद यही होना था।

मेरे एक मित्र थे/हैं/रहेंगे , जवानी में एक ठो विफ़ल विवाह और दो ठो विफल प्रेम कर चुके हैं या शायद करेंगे । अपनी अधेड़ावस्था (२५ साल के बाद आजकल युवावस्था बह जाती है। ) में हर शाम सोमरस से नापा तुला आचमन कर लेने के बाद एक फिकरा जरूर कहा करते हैं, "हैरानी होती है शुक्ला बॉस, कितना कितना तो लव मिला है हमें लाइफ में , आपसे सच बतातें हैं हम डिजर्व नहीं करते थे।"

Friday, January 11, 2008

गुरु गृह गए पढ़न रघुराई

जूते सिलने का काम मोची ही करेगा, धोबी नहीं। नाई ही हजामत बनाएगा, हलवाई नहीं। यही बात ट्यूशन के संबंध में भी है। घोड़ा-तांगा हाँकने वाला, बंदर-भालू नचाने वाला, लौकी और कद्दू बेचने वाला तो ट्यूशन पढ़ाने से रहा। इस कलियुगी निंदास्पद कार्य को अध्यापक ही संपन्न कर सकता है। यदि ऐसा न होता तो तंबाकू और शीरा बेचने वाले भी ट्यूशन ही पढ़ाया करते। लोग अध्यापक से न जाने क्यों जलते हैं? जो अपनी ही आग में जला जा रहा है उस बेचारे से क्या जलना? राम तो विष्णु के अवतार थे उन्हें भी गुरु के घर जाना पड़ा। यह कारण था कि अल्पकाल में ही उन्होंने सारी विद्याएँ प्राप्त कर लीं थीं। तुलसी बाबा ने भी इस बात की पुष्टि की है- "गुरु गृह गए पढ़न रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई।" जब भगवान का यह हाल था तब आज के छात्र की क्या औकात।
भारत जैसे शास्त्र प्रधान देश में ट्यूशन-शास्त्र पर अभी तक एक भी ग्रंथ नहीं है। शास्त्रों की बखिया उधेड़ने वालों के लिए यह डूब मरने की बात है। इस प्रक्रिया के कुछ सोपान निश्चित किए जा सकते हैं।
विद्वत्ता से प्रभावित होकर ट्यूशन पढ़ने वाले छात्रों को उच्च श्रेणी में रखा जा सकता है इनका शास्त्रीय विवेचन करना व्यर्थ है। इनके अतिरिक्त ट्यूशन घेरने के लिए छात्रों पर फंदा डालना पड़ता है। इसके कई तरीके हैं- कक्षा में देर से आना, कक्षा में पहुँचकर माथा पकड़कर बैठ जाना। एकाध सवाल समझाकर सारे कठिन सवाल गृह-कार्य के रूप में देना। यदि छात्र कक्षा में कुछ पूछे तो - 'कक्षा के बाद पूछ लेना' कह देना। कक्षा के बाद पूछे तो 'घर आओ तब ही ढंग से बताया जा सकता है।' दूसरी विधि-छमाही परीक्षा में चार-पाँच को छोड़ बाकी छात्रों को फेल कर देना। फिर देखिए सुबह-शाम छात्रों की भीड़ गुरु-गृह में दृष्टिगोचर होने लगेगी।
इस प्रकार जब दूकान चल निकलती है तो दो शिफ्ट सुबह में वास्तविक पढ़ाई शुरू हो जाती है। गुरु जी पढ़ाते समय विभिन्न दैनिक एवं पारिवारिक कार्यों को भी संपन्न करते रहते हैं - एक पंथ दो काज। विनाशक जी छुटके की रुलाई रोकने के लिए सिंहासन छोड़कर कई बार घर के अंदर जाते हैं। इसी बीच बाथरूम में जाकर नहाना, नहाने के बाद अगरबत्ती जला कर पूजा करना और बीच-बीच में दिशा निर्देश भी करते जाते हैं - महेश तुम गुणनखंड के आठ प्रश्न अभी हल करो।' श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ संतन की सेवा' और सोहन तुम वृत्त के सभी प्रश्न कर जाओ। इस प्रकार कार्यरत रहने से ये गुरु-शिष्य विद्यालय में देर से पहुँच कर गौरव प्राप्त करते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि छात्रों के हृदय से सेवा-भावना का लोप हो रहा है। इन गैर सरकारी 'कुटीर शिक्षा केंद्रों' का निरीक्षण करें तो उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी पड़ेगी। सुबह के समय एक छात्र डेरी से दूध ला रहा है। दूसरा गुरु-पुत्र को विद्यालय पहुँचा रहा है। तीसरा गुरु पत्नी की सेवा में जुटा हैं और सिल पर मसाला पीस रहा है, चौथा अंगीठी लगाने में सहायता कर रहा है। चक्की से गेहूँ पिसवा कर लाना, सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी लाना, धोबी के यहाँ मैले कपड़े भिजवाना, गुरु जी के लिए दूकान से बीड़ी-पान ख़रीद कर लाना इन सभी कार्यों को छात्र ही संपन्न करते हैं। इस प्रकार शिक्षा में श्रम अनायास ही जुड़ जाता है।
यदि सेवा भावना से गुरु प्रसन्न है तब भगवान भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गुरु जी अगर नाराज़ है तो भगवान भी सहायता नहीं कर सकते। कबीर अनपढ़ भले ही रहे हों परंतु नासमझ नहीं थे। वे जानते थे कि शिष्य को व्यावहारिक होना चाहिए। इसलिए वे सबसे गुरु के चरण छूने की सलाह देते हैं। गुरु और भगवान की मिली भगत से वे अच्छी तरह परिचित थे। यही जानकर उन्होंने इशारा किया था- 'कह कबीर गुरु रुठते हरि नहिं होत सहाय।' ज्ञान ध्यान स्नान के लिए एकांत होना आवश्यक है। कक्षा की भीड़-भाड़ में ज्ञान-चर्चा करना व्यर्थ है। आज हमारी सरकार शिक्षा-नीति के परिवर्तन पर बहुत दे रही हैं। मेरी सलाह कोई माने तो 'हींग लगे न फिटकारी रंग चोखा चढ़े।' सब विद्यालय बंद करा दिए जाएँ। भवन-निर्माण, फर्नीचर, वेतन सभी खर्च समाप्त। कुटीर शिक्षा-केंद्र चलाने के लिए धाकड़ अध्यापकों को प्रोत्साहित किया जाए।
ट्यूशन धौंकने वाले अध्यापक से लाभ ही लाभ है। अपने प्रिय छात्र के लिए अध्यापक को कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते हैं। परीक्षा कक्ष में नकल की विशेष छूट देना, पेपर आउट करना, कॉपी में नंबर बढ़ाना या घर जाकर कॉपी में लिखवाना। लिखित परीक्षा में दस प्रतिशत नंबर लाने वाले छात्र को प्रयोगात्मक परीक्षा में नब्बे प्रतिशत अंक दिलवाना आदि बहुत-सी सेवाएँ सम्मिलित हो जाती हैं। बाहर से आने वाले परीक्षक को अपने घर से दूर रखना लेकिन किसी जाल में फँसे शिष्य के घर से जाकर द्राक्षासव के साथ मुर्ग-मुसल्लम का भोग कराना भी आवश्यक हो जाता है।
विद्यालय की दीवारें इनको काटने के लिए दौड़ती हैं। जिस प्रकार चोर को चाँदनी रात अच्छी नहीं लगती इसी प्रकार हरामखोरी न करने वाले शिक्षक इन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते। अत: यह अजन्मा लोगों के अज्ञात-नामों के शिकायती पत्र लिखने का पुण्य भी लूटते रहते हैं। अपने मन बहलाव के लिए यह छात्रों के भविष्य को उजाड़ने वाले पुण्य पुरुषों का लीडर बनकर अपने हीनभाव ग्रस्त मन को सांत्वना देते हैं। इनकी 'राणा की पुतली फिरी नहीं चेतक तब मुड़ जाता था' वाली हालत रहती हैं। दूर से यदि प्राचार्य की परछाई भी दिखाई दे गईं तो ये चुपचाप कक्षा में पदार्पण कर जाते हैं। वैसे कक्षा में इनके रहने या न रहने से कोई अंतर नहीं आता है क्योंकि 'जैसे कंता घर रहें तैसे रहें बिदेस।'
यदि कोई सनकी अध्यापक इनके धंधे-पानी में बाधा बनता है तो ये करैत साँप बनकर उसे डसने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं। मुँह का ज़ायका बदलने के लिए ये चुगली का भी सहारा लेते हैं लेकिन इनकी हालत भुस-भरे कटड़े से आगे नहीं बढ़ पाती है जिसको दूध निकालने के लिए भैंस के आगे रख दिया जाता है। भला हो शिक्षा बोर्ड वालों का यदि अर्ध-वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को बोर्ड की परीक्षा से वंचित करने का नियम दिया जाए। इससे ट्यूशन के कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा तथा धंधे की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बल मिलेगा।

जिसे मुर्दा पीटे उसे कौन बचाए

इस मसले पर लंबी बहस की जा सकती है कि पिटना एक आर्ट है या एक साइंस। हमारे सूबे के तालिबइल्मों का इस ओर बढ़ता रुझान देखकर मेरा मानना है कि कम से कम मौजूदा सरकार को 'पिटाई' सब्जेक्ट को पढ़ाने के लिए उत्तर प्रदेश की सभी युनिवर्सिटीज़ में एक डिपार्टमेंट खोल देना चाहिए।
यह ज़रूर है कि इस नए सब्जेक्ट को अपने यहाँ रखे जाने के लिए शुरू में आर्टस फ़ैकल्टी और साइंस फैकल्टी के डीन में मुड़फुटौअल होगी, पर उनकी इस मुड़फुटौअल का नतीजा ही यह मसला सही ढंग से हल कर पाएगा कि यह एक आर्ट है या साइंस। जहाँ तक पीटने का सवाल है, इस बात पर शायद ही कोई बहस करे कि पीटना एक ऐसा हुनर है, जिसमें महारत पाने के लिए अपने को मज़बूत और मोटी खाल का बनाना पड़ता है।
इससे सब सहमत होंगे कि पिटना कई तरह का होता है। जैसे माँ से पिटकर गाल लाल करवा लेना, गुंडे से पिटकर हाथ पैर तुड़वा लेना, हमदर्दी के वोट हासिल करने के लिए चुनाव से पहले अपने चमचों से पिटकर टिंक्चर के रंग की पट्टियाँ बदन पर लपेट लेना, चुनाव में पिटकर खिलाफ़ पार्टी पर बूथ-कैप्चरिंग की तोहमत लगाने लगना, 'होनहार' किस्म के तालिबइल्मों से पिटकर और सरकार के तालिबइल्मों से हिकमतअमली से निबटने की नसीहत सुनकर मुदर्रिस का मुँह छिपाए-छिपाए घूमना, पुलिस से पिटकर हिरासत में लिए गए बशर का झूठा-सच इकबाले-जुर्म कर लेना, और मरीज़ों से पिटकर डाक्टरों द्वारा हड़ताल पर चले जाना, वगैरह, वगैरह।
हालाँकि हर पेशे के इंसान की पिटाई के अपने अलग तरीके और सलीके होते है, लेकिन डाक्टरों की पिटाई के एक से ज़्यादा वजूहात और तरीके पाए गए हैं। मैंने अपनी पुलिस की नौकरी के दौरान इनकी अफ़सोसनाक और पुरलुत्फ़ दोनों किस्म की पिटाई देखी है। डाक्टरों का पेशा ऐसा है कि नर्सों से उनका चोली दामन का साथ रहता है। अब अगर दामन दामन की जगह रहे और चोली चोली की जगह, तब तो ठीक है, लेकिन इंसान की फ़ितरत ऐसी है कि कभी-कभी दामन अपनी जगह से उठकर चोली तक पहुँच जाता है। एक जिले में मेरी तैनाती के दौरान ऐसे ही एक नाज़ुक मौके पर एक ख़ूबसूरत-सी नर्स ने एक डाक्टर साहब की अपनी पुरानी चप्पल से पिटाई कर दी थी। मुझे लगता है कि डाक्टर साहब को उन नाज़ुक हाथों से पीटे जाने पर कोई ख़ास अफ़सोस नहीं था और शायद वह उस दौरान मन ही मन मजनू बन जाने का मज़ा भी ले रहे थे, क्योंकि बिना कुछ बोले, बिना शोर मचाए, और बिना कोई बवाल किए वह चुपचाप वहाँ से खिसक लिए थे। पर गाज गिरे इश्क के दुश्मनों पर कि तभी उन्होंने पाया कि एक वार्ड ब्वाय ने वह पुरलुत्फ़ नज़ारा देख लिया। तब वह अकड़कर खड़े हो गए थे ओर बोले थे, 'यह नर्स बड़ी बददिमाग़ हो गई है। अगर इसको डिसमिस न करा दिया तो मेरा नाम 'पिटे डाक्टर' नहीं। फिर उन्होंने सी. एम. ओ. के नाम एक शिकायती ख़त लिखा था जिसमें उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि नर्स ने उन्हें पुरानी चप्पल से मारा- उन्होंने 'पुरानी' लफ़्ज़ को ख़ास तौर से लाल रौशनाई से लिखा था।
जब मैं बरेली में एस. एस, पी. था तो एक सुबह टेलीफ़ोन आया कि सरकारी अस्पताल के एक डाक्टर साहब को एम. एल. ए. साहब और उनके चमचे अस्पताल में पीट रहे हैं। हालाँकि आजकल हर सरकार एम. एल. ए. साहब, उनके गनर और चमचों का यह पैदाइशी हक मानती है कि कभी-कभी सरकारी कर्मचारियों की ठुकाई करते रहें, लेकिन आज से तीस साल पहले की सरकारों में इतनी ज़्यादा समझदारी नहीं आई थी। इसलिए मैंने हिम्मत जुटाकर पुलिस भेज दी और एम. एल. ए. साहब और उनके साथियों को गिरफ़्तार करवा दिया। उस दिन डाक्टर साहब की इतनी 'ख़ुशनुमा' बोहनी करने का सबब पूछने पर एम. एल. ए. साहब ने पुलिसवालों को शेर की निगाह से घूरते हुए बताया, 'मैंने अपने पैड़ पर दस बारह दवाओं के नाम व तादाद लिखकर अपने आदमी को डाक्टर साहब के पास भेजा था कि जाकर दवाएँ ले आओ। मेरा पैड़ देखने के बावजूद गुस्ताख़ डाक्टर ने यह कहते हुए दवाएँ देने से मना कर दिया, 'एम. एल. ए. साहब आ जाएँ, मैं उनकी सेहत का मुआइना करने के बाद ही दवा दूँगा।'
दूसरे दिन मुझ जैसे कूढ़मगज़ की समझ में भी आ गया था कि डाक्टर ने एम. एल. ए. के पैड़ पर लिखीं दवाएँ न देकर और मैंने उनकी गिरफ्तारी कराकर एम. एल. ए. साहब की शान में कुछ न कुछ गुस्ताख़ी तो ज़रूर कर दी थी, क्योंकि एम. एल. ए. साहब की गिरफ्तारी को उनकी बेइज़्ज़ती बताकर असेंबली में सवाल उठा दिया गया था और मुझे जवाब के साथ फ़ौरन से पेश्तर लखनऊ में हाज़िर होने का हुक्म मिला था। लखनऊ में मंत्री जी ने मेरी बात से पूरी तरह नाइत्तफ़ाकी तो नहीं जताई, ताहम इतना ज़रूर कहा कि मैंने गिरफ्तारी कराने में जल्दबाज़ी कर दी थी। तब मेरे मसख़रे मन मे ख़याल आया था कि शायद मंत्री जी का मतलब था कि उनसे पूछकर एम. एल. ए. की गिरफ्तारी होनी चाहिए थी जिससे इस बीच डाक्टर साहब की खूब धुनाई हो चुकती। ख़ैर जो भी हो, मैं मंत्री जी का शुक्रगुज़ार हूँ कि उसके बाद मामला मंत्री जी ने संभाल लिया था।
आजकल के पुलिस अफ़सर इस वाकये के बारे में बताने पर यह जानकर हैरान रह जाते हैं कि एम. एल. ए. की गिरफ्तारी के बाद न तो मेरा मुअत्तिली का आर्डर आया और न तबादले का। वैसे आजकल ऐसा वाकया हो ही नहीं सकता है क्योंकि आजकल के 'होशियार' डाक्टर ऐसा मौका आने ही नहीं देते हैं कि एम. एल. ए. साहब को दवाओं की पर्ची लिखकर भेजने की तकलीफ़ उठानी पड़े- वे उनके ख़ुद के, उनके बाल-बच्चों के, उनके दोस्तों और चमचों के, उनके दोस्तों और चमचों के दोस्तों और चमचों के असली और ख़्वाबी मर्ज़ों की पूरी लिस्ट जेब में रखते हैं और महीनों की दवाई एडवांस मे मुहैया कराते रहते हैं और अगर किसी नवसिखिये डाक्टर की बचकाना हरकत से ऐसा मौका आ भी जाए, तो पुलिस वाले एम. एल. ए. साहब के बजाए डाक्टर को बदअमनी फैलाने के जुर्म में बंद कर देना ज़्यादा महफ़ूज़ समझते हैं।
फिर जब मैं एस. एस. पी. लखनऊ था, तो एक दिन कंट्रोल रूम से फ़ोन आया कि मेडिकल कालेज के सभी ज्युनियर डाक्टर हड़ताल पर चले गए हैं और तोड़-फोड़ पर आमादा हैं। मेडिकल कालेज पहुँचा तो ज्युनियर डाक्टरों को सचमुच तैश में पाया- उनका तैश ख़ास तौर से अपने सीनियरों के खिलाफ़ था। उनका कहना था, 'वार्ड में एक मरीज़ की मौत हो जाने पर उसके साथियों ने डयूटी पर मौजूद ज्युनियर डाक्टर की पिटाई कर दी है- बेचारा ज्युनियर डाक्टर क्या करता, उसे जितना आता था उसने किया? सीनियर डाक्टर प्राइवेट प्रेक्टिस में इतने मसरूफ़ रहते हैं कि वार्ड के मरीज़ों पर तवज्जो ही नहीं देते हैं।' उस वक्त उनकी हिफ़ाज़त का बंदोबस्त करने की झूठी-सच्ची तसल्ली देकर मैंने मामला निबटा दिया था, लेकिन बाद में हुआ यह कि मेडिकल कालेज मे पुलिस का बेहतर इंतज़ाम हो जाने से सीनियर डाक्टर और बेफ़िक्री से प्रायवेट प्रेक्टिस में मुब्तिला हो गए और ज्युनियर डाक्टरों से अपनी हिफ़ाज़त का बहाना लेकर ख़ुद के साथ पुलिस लगाने की माँग करने लगे।
पर डाक्टरों की पिटाई के ये सब तो हिंदुस्तानी वाकये हैं- दूसरे तमाम मसायल की तरह इस मसले में भी फिरंगियों का स्टाइल कुछ अपना ही है। कुछ दिन पहले का रोमानिया का वाकया तो जितना पुरलुत्फ़ है उतना ही हैरतअंगेज़ भी। हुआ यों कि एक दिन एक मरीज़, जो दिल की बीमारी की वजह से एक अस्पताल में भर्ती था, का दिल धड़कना बंद हो गया और डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद उसमें हरकत न हुई। नाउम्मीद होकर डाक्टरों ने उस मरीज़ को मरा कहकर तब तक के लिए मुर्दाघर में भेज दिया, जब तक घरवाले उसे दफ़नाने का इंतज़ाम न कर लें। कुछ घंटे बाद एक डाक्टर साहब किसी काम से मुर्दाघर में गए, तो यह देखकर हैरान रह गए कि एक मुर्दा के हाथ में कुछ हरकत हो रही थी। वह उसका मुआइना करने जैसे ही उस पर झुके, उस मुर्दे ने उसी हाथ से उनके मुँह पर ऐसा ठूँसा मारा कि उन्हें दिन में तारे नज़र आने लगे। फिर वह मुर्दा उठ बैठा। डाक्टर साहब की कराह सुनकर जब और लोग अंदर आ गए तो 'मुर्दे' ने बताया, 'जब वह होश में आ रहा था तो उसे दिखाई पड़ा कि सफ़ेद चोगा पहने एक भूत उसके ऊपर झुक रहा है, तब घबराकर उसने उस 'भूत' के मुँह पर भरपूर ठूँसा जड़ दिया था, उसे क्या पता था कि वह एक डाक्टर हैं?'अब भाई जिसे मुर्दा पीटे, उसे कौन बचाए?